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उत्तराखण्ड

एक देश एक चुनाव’ लागू करने से क्या भारत में संवैधानिक संकट खड़ा होगा?

लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के पीछे कई तरह के तर्क दिए जाते रहे हैं. दावा किया जाता है कि इससे देश के विकास कार्यों में तेज़ी आएगी.

चुनावों के लिए आदर्श आचार संहिता लागू होते ही सरकार कोई नई योजना लागू नहीं कर सकती है. आचार संहिता के दौरान नए प्रोजेक्ट की शुरुआत, नई नौकरी या नई नीतियों की घोषणा भी नहीं की जा सकती है और इससे विकास के काम पर असर पड़ता है.

यह भी तर्क दिया जाता है कि एक चुनाव होने से चुनावों पर होने वाले ख़र्च भी कम होगा. इससे सरकारी कर्मचारियों को बार-बार चुनावी ट्यूटी से भी छुटकारा मिलेगा.

भारत में साल 1967 तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए चुनाव एक साथ ही होते थे. साल 1947 में आज़ादी के बाद भारत में नए संविधान के तहत देश में पहला आम चुनाव साल 1952 में हुआ था.

उस समय राज्य विधानसभाओं के लिए भी चुनाव साथ ही कराए गए थे, क्योंकि आज़ादी के बाद विधानसभा के लिए भी पहली बार चुनाव हो रहे थे. उसके बाद साल 1957, 1962 और 1967 में भी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ ही हुए थे.

यह क्रम पहली बार उस वक़्त टूटा था जब केरल में साल 1957 के चुनाव में ईएमएस नंबूदरीबाद की वामपंथी सरकार बनी.

इस सरकार को उस वक़्त की केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 356 के अधीन राष्ट्रपति शासन लगाकर हटा दिया था. केरल में दोबारा साल 1960 में विधानसभा चुनाव कराए गए थे.

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